Saturday, January 14, 2012

Disclaimer


DISCLAIMER:
Posts on this blog about ghazals include an original interpretation in English and the writer makes no claim of a word for word translation. This work involved appreciating ghazal, understanding the lyrics, attempting poetry and all of these are looked upon as a lovely learning experience which may include erring on the way. The writer is therefore unable to guarantee expertise or complete accuracy in this work. This blog is only posted here for the joy of a shared journey. However this interpreted English version is protected by copyright and may not be reproduced without crediting this blog as a source and also informing the writer of this blog by email for consent.  Finally a big thank you to all the ghazal lovers out there who upload on you tube and who blog about it. The ghazal videos in this post are sourced from you tube.

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Sunday, January 8, 2012

नौका डूबी –रविन्द्रनाथ टगोर

मैंने इस साल हिंदी प्रवास की शुरुवात की रविंद्रनाथ टगोर की इस कहानी के भाषांतर को पढके.

कहानी है रमेश, कमला, हेम्नालिनी, और नलिनाक्ष की. उन विन्हीन्ना पात्रों  को जान्ने के लिए लेखक ने खूब समय दिया है और कहानी की गति उन्ही पात्रों की धीमेसे बहेती हुई जीवन की नदी की तरह है. साथ ही अनेक विधाता रचित संयोगों में बंधी घटनाओं की वजह से इस उपन्यास में कुछ अनपेक्षित मोड़ आते हैं जो विशेष जान पड़े.

रमेश है पढ़ा लिखा वकील जो कोलकत्ता में एक छोटे से मकान में रहेता है. उसका पढ़ाकू, शांत चित्त एक ओर  है तो दूसरी ओर हैं उसके गरम मिजाजी दोस्त और पडोसी योगेन्द्र का रंगीन परिवार. योगेन्द्र के पिता नवीन बाबु ने उनकी बेटी हेम्नालिनी को भी अपने बेटे की तरह ही पाला है उन्ही अधिकारों और सुविधाओं के साथ. पत्नी के गुजर जाने के कारन वह हेम्नालिनी को पिता का प्यार और माँ की ममता दोनों ही देने का सदैव प्रयास करते हैं. उनके घर में हर शाम चाय की मेज पर खूब महफ़िल जमती है और आधुनिक विषयों पर चर्चा होती है. वहीँ हेम्नालिनी और रमेश के बीच में स्नेह बढ़ता है हालाकि योगेन्द्र के मित्र अक्षय को सदैव रमेश से जलन होती है.


इस प्रेम को बढ़ावा मिलने में आड़े आता है रमेश का सेहेमा हुआ, निष्क्रिय स्वभाव. इतने में गाव से पिता का बुलावा आने के कारण कहानी को कुछ अलाग ही मोड़ मिलता है. रमेश पिता के दिए हुए वचन के खातिर एक गरीब विदवा की बेटी से विवाह करने के लिए बड़ी विमुखता और निराशा के साथ परिवार सहित लड़की के गाँव जाता है. लौटते समय नदी में बहुत बड़ी बाढ़ आने के कारण परिवार वाले लगभग सभी लोगों की मौत होती है. उस समय नदी के घाट पर अपने पास बेहोश पड़ी अपनी बेसहारा पत्नी पर रमेश को दया आती है. पत्नी कमला के भोलेपन और निसंदेह भरोसे से मोहित होकर रमेश उसे अपने साथ कलकत्ते ले आता है मगर अपने दृढ निश्चय के बाद भी हेम्नालिनी को नहीं भुला पाता.


तब अचानक यह बात सामने आती है की बाढ़ में बहुत बड़ी हेरा फेरी हो गयी और असल में कमला रमेश की नहीं किसी नलिनाक्ष डॉक्टर की ब्याही पत्नी है. यह जानकार रमेश बहुत बड़ी दुविधा में पद जाता है, कमला से दूर दूर रहेने लगता है जबकि वह रमेश को ही अपना सर्वस्व मानती है. भाग्य के खेल को सर्व श्रेष्ठ दिखलाते हुए लेखक के इस कठोर मजाक के बाद अब आगे क्या होगा यह रहस्य उस लम्बी किताब की धीमी गति के बावजूद पाठक को बांधे रखता है.

कमला उम्र में छोटी अनपढ़ और भोली जरूर है मगर घर गृहस्ती का काम बेझिझक उठा लेती है. रमेश के ठीक विपरीत वह उत्त्साही सशक्त संकल्पों और मूल्यों के आधार पर अपने आप को हमेशा अपने आपको साधन सम्पन्न और सकारात्मक दर्शाती है. रमेश द्वारा बोर्डिंग स्कूल भेज दिए जाने पर पहले मन लगाकर पढ़ती है फिर अपने पतिप्रेम में व्याकुल होकर लौटने की तीव्र इच्छा प्रकट करती है और अपना अधिकार फिर से पा ही लेती है. कमला व्यवहारिक जीवन में अपने आप को सफल साबित करती है. कोलकत्ता के तानों से बचने के लिए रमेश द्वारा आयोजित काशी यात्रा पर चाचा और सेवक का भी आदर और स्नेह प्राप्त करके दिखाती है. परन्तु रमेश की दुविधा को समझने में कमजोर पड़ जाती है. उनके द्वेष को देखकर अपनी ही नजर में गिरती है और उम्र तथा अनुभव के अभाव में इस परिस्थिति का सामना नहीं कर पाती, मन ही मन जलती रहती है, व्याकुल, अस्थिर हो उठती है.


वहीँ हेम्नालिनी अपने भाग्य का सामना करते हुए खूब मनोबल और साहस प्रदर्शित करती है. रमेश अचानक गायब हो जाता है, खबर नहीं करता, फिर कोल्कता लौटता है पर किस्सी बात को ठीक स्पष्ट नहीं करता. अपनी कमजोरी के कारण हेम्नालिनी से भी कमला के बारे में साफ़ साफ़ नहीं कह पाता जबकि योगेन्द्र और अक्षय उसकी छिपाई हुई बात पकड़ लेते हैं और हेम्नालिनी के सामने रख देते हैं. इस सब के बावजूद हेम्नालिनी को अपने प्रेम पर विशवास है, रमेश को पहेचानने की अपनी क्षमता पर विशवास है और रमेश के बताए अर्ध सत्य के सहारे सब्र करना मंजूर है. अपने पिता नवीन बाबू के सहारे से वह अपने विशवास को सामाजिक दबाव से अधिक प्राधान्य देने में सफल होती है और उदासीन भाव से नवीन बाबु के साथ वह भी काशी निकल पड़ती है. 


अजीबोगरीब इस कहानी के अंतिम अंश में प्रवेश करते हैं नलिनाक्ष बाबु. बाढ़ में अपनी पत्नी को खो देने के शोक में डूबने के बाद और अनास्तक भाव से लोगों की सेवा में और डाक्टरी में लग जाते हैं. उन्हें अपनी बूढी मान की सेहत का, सेवा का बहुत ख्याल रहेता है. एक तरफ उनकी काशी घाट पर हेम्नालिनी से मुलाकात होती है और दोस्ती होती है. दूसरी तरफ अभागी दुखी कमला अपनी सचाई जान लेने के बाद गंगा में डूब जाने की इचा से निकलकर तैरती हुई, भटकती हुई, ठोकरें खाकर आखिर कार नलिनाक्ष बाबु की माँ की ही सेवा में उपश्तित हो जाती है. उसका भोला मन जितना मार्गदर्शन करता है उसके हिसाब से वह फिर जीवन को मन चाहे मार्ग पर लाने में इस तरह कुछ हद तक सफल होती है. रमेश उसे ढूंढते हुए वहीँ पहुँचता है और चारों पात्रों को अपना भाग्य काशी में ही मिलता है. 

काशी में ही कहानी का अंत है और मन में कई सावाल रह जाते हैं की क्या कमला को रमेश के साथ ही लौट कर जीवन बिताना चाहिए. क्या हेम्नालिनी को नलिनाक्ष से बनी दोस्ती को विवाह में बंधकर प्रेम में बदलने की कोशिश करनी चाहिए या रमेश के साथ पुनर्मिलन को एक और मौका देना चाहिए. असली जीवन की तरह ही कोई एक रास्ता सरल और स्पष्ट नहीं होता और दुविधा, मोह, माया, शंका में सदैव बंधे रहते हैं.


इसको पढने के बाद मैंने हाल ही में इस कहानी पर आधारित फिल्म भी देख डाली. कशमकश. मगर वह संक्षिप्त रूप सबके व्यक्तित्व को पकड़ने में बेहद असफल रहा और तब एहेसास हुआ की उपन्यास अपनी  उस्सी असह्य धीमी गति के कारण कितना रसमय और सुंदार सफ़र रहा. चित्रीकरण के इतने फायदे होते हुए भी सभी अक्सर कहते हैं के चित्रों का किताबों से टोल नहीं और मैं भी इसी निष्कर्ष पर पहुंची ...

Thursday, January 5, 2012

स्वागत


हिंदी लेंस से देखें और परखें अपनी दुनिया की ख्याति  
उज्वल ज्योति हिंदी, नयी पुरानी बातें है दर्शाती 
प्रसिद्ध या गुमनाम, कहानियाँ जो छु कह जाती 
हो हिंदी की डोर से बाँधी तभी और भी हमको भाँती   
हिंदी  में  जानें कुछ अपनी कुछ औरों की संस्कृति 
नसीहतें जो मिलती हैं,  कुछ  उलझाती  कुछ  सुलझाती 
आए ब्लॉग लेन्स से देखें आखिर हिंदी क्या  रंग  लाती 

हर  अक्षर में  डूबा  हुआ  है ज्ञान  और इतिहास 
कुछ  न्यारी  सी  रीतियों का, नीतियों  का  एहेसास 
रचनाओं में  चुटकुलों  में  मार्मिक  सा  आभास  
मिलजुलकर  हिंदी  पढने  में, बोलने में उल्हास  
अपनी  बोली  का,  औरों  के  मायनों  का  अभ्यास  
हिंदी के ज्ञान पिटारे से ही करना  है  स्वयं  विकास 
अंततः  अपने  विचारों  की अभिव्यक्ति का  प्रयास 



The limits of my language mean the limits of my world      -    Ludwig Wittgenstein