Sunday, February 5, 2012

बिराज बहु - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

चट्टोपाध्यायजी के कई उपन्यास प्रसिद्ध हैं जैसे देवदास, पारिनीता जिनपर बनी फ़िल्में भी हमने देखि हैं.


बिराज बहु पढने में बेहद मजा आया क्योंकि इसमें पतिप्रेम का अमूल्य महत्व जीवन का मार्गदर्शन करता है.  बिराज एक स्वाभिमानी अतिसुन्दर स्त्री है जो अंत में पतिप्रेम को ही सबसे महत्व पूर्ण मानती है. इससे अधिक आनंद और समाधान हुआ बिराज के पति नीलाम्बर के शांतचित, दार्शनिक एवं स्नेहपूर्ण वृत्ति को जानकार. अपनी धर्मं पत्नी के प्रति नीलाम्बर के गहरे प्रेम और उन दोनों के बीच का अटूट रिश्ता इस संपूर्ण कहानी के दूखाद वृत्तान्त पर भारी हो गया और मेरे मन में एक सकारात्मक प्रभाव छोड़ गया. 


नीलाम्बर और बिराज का बाल विवाह हुआ और अब बिराज की आयु लगभग बीस वर्ष है जब कहानी शुरू होती है. सर्व गृहिणियों की तरह ही वह घर के काम काज करती है, पति की सेहत को लेकर चिंतित रहती है और अन्य स्त्रियों की तरह टंटे कर घर सर पर भी उठा लेती है. सांस के गुजर जाने से वाही बड़ी बहु है जो नीलाम्बर की छोटी बहन नन्ही हरिमति को भी पाल पोसकर बड़ा करती है. नीलाम्बर के भाई पीताम्बर दुनियादारी खूब जानते है, कचहरी से रोजगार कमाकर धीरे धीरे अपनी गृहस्ती अलग करते हैं; बटवारे की मांग करके करीब होकर भी  भाई से दूर ही रहेते हैं. 


उनकी दुनियादारी के ठीक विपरीत नीलाम्बर का कोमल स्वबहाव और निश्चिन्त सदैव संतुष्ट भाव मुझे बेहद आकर्षित करता रहा. अपनी बहन के प्रति भी उनकी जिम्मेदारी के साथ साथ स्नेह भरी समझ देखते ही बनती थी. मगर उनकी ऐसी खुद्दार इमानदार सेवाभावी तबीयत के कारण हरिमति के ससुराल वालों को रिझाते रिझाते वह अमीर जमींदार से गरीब और लाचार बनते हैं. फिर वही सामाजिक दृश्य देखने को मिलता है जहां जात पात धर्मं में बंधे नीलाम्बर अपना जीवन निर्वाह करने के लिए काज आसानी से नहीं ढूंढ पाते. नीलाम्बर आखिरकार कीर्तन गान करके चार पैसे कमाने लगता है. बिराज एक सम्पन्न घर की बहु से एक गरीब दुखियारी स्त्री में परिवर्तित होती है जो किसी तरह रोटी का इन्तेजाम करती है अपने कुशल हाथों से मिटटी के साचे बनाकर. यूँही साल बीतते हैं और उन दोनों की परिस्थितियाँ बिगडती ही रहती हैं. 


बिराज निःसंतान है. मालुम होता है की इस वजह से भी वे गाव में लोगों के बीच रहेते हुए भी बिराज की अपनी जिंदगी के रंग बोहोत फीके पड़ने लगे हैं. रूपवान होने की वजह से किसी बुरे अमीर आदमी की बुरी नजर उसपर पड़ती है. उसे पाने की चाह में नदी पर एक घांट बनाकर वह बिराज के घर के इर्द गिर्द ही मंडराता है. नीलाम्बर की निरंतर गरीबी और हाताशी देखकर मैंने स्वयं क्रोध और निराशा महेसूस की, फिर बिराज जैसी सुन्दर अहंकारी पतिव्रता के मन पर क्या गुजरती है यह समझना मेरे लिए स्वाभाविक था. एक और बढती गरीबी तो दूसरी और तनाव घर के भीतर और घर के बाहर भी. 


एक काली रात में नीलाम्बर अपने स्वभाव के विपरीत जाकर बिराज पर शक कर बैठते हैं. जबकि वह बेचारी तीन दिन से भूखी, बुखार में जलने के बावजूद, अपने आत्मसन्मान पर गहरा घांव करके किसी गरीब से भीख में मिले चावल पकाकर उनकी राह देख रही होती है. इसी झगडे मार पीट से कहानी पर काली छाया पड जाती है. बिराज घर से निकाले जाने पर आत्महत्या से भी घोर समझा जाने वाला पाप कर बैठती है. अपने चाहने वाले के पास जाती तो है फिर तुरंत खुदकी भूल जान लेती है और नदी में कूद जाती है. उसकी जान बचती है मगर वह रोगी हो जाती है, धीरे धीरे अंधी और अपाहिज बनती है. अपने पाप में जल रही वह लम्बे अरसे तक घर लौटने का साहस नहीं करती. वहीँ नीलाम्बर अपनी अर्धांगिनी से जुदाई पर जैसे अपना आधा जीवही खो बैठते हैं. मरने से पहले बिराज गाँव लौटती है और पति के बाहों में प्राण त्यागती है. अपने पति और परिवार की क्षमा, प्यार और इज्जत पाकर ही वह सांस छोडती है. 


इतनी रुलाई के बाद मेरे लिए यह एक 'हैप्पी एंडिंग' ही रहा.